ग़लती क्या थीं
कभी-कभी कुछ रिश्ते
सिसकते हैं, बिलखते हैं, तरसते हैं
न चाहते हुए भी दे जाते है
अपनी प्रतिक्रिया
रुधन स्वर में....
स्वतंत्र होकर भी,खुद को
जकड़ लेते हैं गुनहगार की बेड़ियों में
और स्वयं ही अदा करने लगते हैं
जज-वकील, दोषी-निर्दोषी की भूमिका
कभी-कभी तो
एकांत वातावरण में
बिछा देते है अपना मन
और घटाते-बढ़ाते रहते है
जीवन के उलझे हुए फंदों को
लेकिन, जैसे ही मिल जाता है
किसी अपने का प्रेम भरा स्पर्श,तो
अपनी एड़ियां पटक -पटक कर
उस स्पर्श में खुद को समेट कर
इस तरह बहा देते है
अपनी सागर-सी वेदनाएँ
जैसे, पूछ रहें हों
मुझे कोई तो बताए
मेरी ग़लती क्या थीं?
रजनी अवनि